Thursday, April 23, 2009

News by Ashok Hindocha-Rajkot(M-9426201999)

प्रेम प्रभु का प्रसाद

मानव जीवन अनमोल है। इसे सुखी बनाने के लिए हम न केवल कई प्रकार के कार्य, बल्कि लगातार प्रयत्न भी करते रहते हैं। लेकिन जब हम लोग जीवन के विभिन्न अनुभवों से गुजरते हैं, तो पाते हैं कि धन और सभी रिश्ते-नाते होने के बावजूद हम सुखी नहीं हो रहे हैं!

सुखी होने के लिए जब हम गुरु, वेद आदि का सहारा लेते हैं, तो पाते हैं कि यदि प्रभु से प्रेम किया जाए, तो जीवन में आनंद ही आनंद मिल सकता है।

वास्तव में, ईश्वर व परमात्मा की तलाश के लिए इधर-उधर भटकने के बजाय हमें स्वयं में उनकी तलाश करनी चाहिए।

साथ ही साथ, हमें दूसरे लोगों में भी परमात्मा को इसलिए खोजना चाहिए, क्योंकि सभी जीव ईश्वर के ही अंश हैं। इसके लिए आवश्यकता है, तो बस इस बात की कि हम सबसे प्रेम करना

सीखें। प्रेम के सामने सभी यज्ञ, दान आदि व्यर्थ हैं। प्रेम ही हैं हरि महर्षि नारद के अनुसार, ईश्वर से अगाध प्रेम ही भक्ति कहलाती है। जब आप ईश्वर को अपना सर्वस्व मानते हैं, तो उन्हें अपना माता-पिता, भाई और सखा की तरह ही मानें। यदि आप सारी कामनाएं, लोभ, अहंकार आदि को परे रख कर उनसे प्रेम करने लगते हैं, तो वे भी आपको अपना मान लेते हैं।

इसीलिए कहा गया है कि जो उनका अपना हो गया, भला उसे संसार के दुख कैसे सता सकते हैं? ईश्वर प्रेम स्वरूप है। आपका प्रेम ही उनको आकर्षित कर सकता है। कहा भी गया है-

प्रेम हरी को रूप है त्यों हरी प्रेम स्वरूप। एक ह्वैदुई ऐसे लसैज्यों सूरज और धूप।

प्रेम हरि का स्वरूप है, इसलिए जहां प्रेम है, वहीं ईश्वर साक्षात रूप में विद्यमान हैं। निश्छल प्रेम जरूरी आप प्रभु से प्रेम करना सीख गए, तो मतलब आप साधक हो गए। प्रभु के साधक की योग्यता जाति, कुल, धन, गुण या विशेष धर्म आदि के आधार पर निर्धारित नहीं होती है।

यदि आप छल, कपट, स्वार्थ, अहंकार आदि से रहित होकर प्रेम करते हैं, तो यही आपकी सही योग्यता है। जिस प्रकार जल के लिए मछली और चंद्रमा के लिए चकोर व्याकुल होने लगता है, ठीक उसी प्रकार यदि आपका मन बिना प्रभु को याद किए व्याकुल रहने लगता है, तो इसका मतलब यही है कि आप उनसे निश्छल प्रेम करने लगे हैं। यदि आप निरंतर प्रभु से इसी तरह प्रेम करते रहेंगे, तो कुछ ही दिनों में आपके चेहरे पर अलौकिक आभा दिखाई देने लगेगी। साथ ही, आपको दुख और सुख, दोनों ही ईश्वर के प्रसाद के समान मालूम होने लगेगा। इस प्रेम में मगन हो कर ही भक्त प्रह्लाद पिता के दिए हुए सभी कष्ट हंसते हुए सह जाते हैं, मीराविष का प्याला पी जाती हैं, विदुर पत्नी वस्त्र पहनना भूल जाती हैं और गोपिकाएं लोक-लाज को भूल कर पूर्णिमा की रात्रि में रात भर कृष्ण के साथ नृत्य करती हैं। चैतन्य महाप्रभु ने ईश्वर प्रेम में न केवल घर-द्वार त्याग दिया, बल्कि प्रत्येक जीव में उन्हें प्रभु ही दिखलाई देने लगे। वास्तव में, जब साधक ईश्वर प्रेम में रम जाते हैं, तो उनका अपना वजूद खत्म हो जाता है। कबीर के अनुसार, सच्चे प्रेम में भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।

प्रेम की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। प्रेम का आनंद प्रेमी ही अनुभव करता है। जैसे गूंगा व्यक्ति केवल गुड का स्वाद अनुभव कर सकता है, शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। ठीक उसी प्रकार हम प्रभु-प्रेम को शब्दों में बयान नहीं कर सकते हैं। प्रेम की विधियां ईश्वर से प्रेम करने की अनेक विधियां हैं, जैसे-ईश्वर के भक्ति-गीतों को सुनना, उन्हें याद करना, कीर्तन, भक्ति-भाव से पूजन-वंदन करना आदि। यदि आप ईश्वर से प्रेम करते हैं, तो भाव जरूरी है न कि बाह्य आडंबर। उदाहरण के लिए हम प्रभु राम के प्रति शबरी की भक्ति देख सकते हैं। यदि साधक को ऐसा लगता है कि ईश्वर की भक्ति के लिए किसी अन्य चीजों का सहारा लेने जैसे -मंदिरों में चढावा आदि देने से ईश्वर का प्रेम मिल जाएगा, तो यह सोच गलत है। क्योंकि यहां भाव की प्रधानताहै।

सच तो यह है कि यदि आप निर्मल मन से केवल ईश्वर का नाम ले लेते हैं, तो यही काफी है। ज्ञान, ध्यान, विद्या, मती मत विश्वास अनेक। बिना प्रेम सब धूरिहै, अग जग एक अनेक। अर्थात बिना प्रेम के सभी साधन व्यर्थ हैं। सच तो यह है कि उस सर्वशक्तिमान को प्रेम के अलावा, कोई अन्य क्रिया या वस्तु कभी नहीं रिझा सकती है। इसलिए भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं -- मययेवमन आधत्स्व,मयिबुद्धि निवेशय।निवसिष्यसिमयेवअतऊ‌र्ध्व न संशय:। तुम अन्य सारी वस्तुओं और क्रियाओं से अपना ध्यान हटा कर केवल मुझमें दिल लगाओ, क्योंकि ऐसा करके ही तुम मेरे हृदय में निवास कर पाओगे। मुझे पाने का एकमात्र उपाय मुझसे प्रेम होना ही है। इसमें तुम्हें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। इसलिए हमें सभी दुखों को भूल कर ईश्वर के प्रति अपना मन लगाना चाहिए और उनसे प्रेम करना चाहिए। -[रामकुमार शुक्ल]



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