Friday, May 8, 2009

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विज्ञापन की कला
प्रस्तुतकर्ता Raju on Friday, May 8, 2009



विज्ञापन की सारी कला ही इस बात पर आधारित है : दोहराए जाओ। फिर चाहे करीना का सौन्दर्य हो, चाहे शाहरुखान का, सबका राज़ लक्स टायलेट साबुन में है। दोहराए जाओ—अखबारों में फिल्मों में, रेडियो पर, टेलीविजन पर—और धीरे-धीरे लोग मानने लगेंगे। और एक अचेतन छाप पड़ जाती है। और फिर तुम जब बाजार में साबुन खरीदने जाओगे और दुकानदार पूछेगा, कौन-सा साबुन ? तो तुम सोचते हो कि तुम लक्स टायलेट खरीद रहे हो, लक्स टायलेट दे दो। तुम यही सोचते हो, यही मानते हो कि तुमने खरीदा, मगर तुम भ्रांति में हो। पुनरुक्ति ने तुम्हें सम्मोहित कर दिया।नये-नये जब पहली दफा विद्युत के विज्ञापन बने तो थिर होते थे। फिर वैज्ञानिकों ने कहा कि थिर का यह परिणाम नहीं होता। जैसे लक्स टायलेट लिखा हो बिजली के अक्षरों में और थिर रहे अक्षर, तो आदमी एक ही बार पढ़ेगा। लेकिन अक्षर जलें, बुझें, जले, बुझें, तो जितनी बार जलेंगे, बुझेंगे, उतनी बार पढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। तुम चाहे कार में ही क्यों न बैठकर गुजर रहे होओ, जितनी देर तुम्हें बोर्ड के पास से गुजरने में लगेगी, उतनी देर में कम-से-कम दस-पंद्रह दफा अक्षर जलेंगे, बुझेंगे, उतनी बार पुनरुक्ति हो गयी। उतनी पुनरुक्ति तुम्हारे भीतर बैठ गयी।

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